Author : Ratiram
Publisher : Uttkarsh Prakashan
Length : 160Page
Language : Hindi
List Price: Rs. 200
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द आर्ट आॅफ लिविंग नामक पुस्तक की रचना श्री विलियम हार्ट निवासी यू0एस0ए0 ने विपश्यना गुरु आदरणीय स्व. सत्य नारायण गोयन्का जी के विचारों से प्रभावित होकर की थी । इसका प्रथम अंग्रेजी संस्करण सन् 1987 में (यू0एस0ए0) में प्रकाशित हुआ था । मुझे इस पुस्तक को प्राप्त करने का अवसर तब मिला जब मैं धम्म शलील, देहरादून विपश्यना केन्द्र (उत्तराखण्ड) के साधना शिविर 19-03-2010 से 27-03-2010 में साधक के रूप में सम्मिलित हुआ था। इसका अध्ययन करने के बाद मेरे अन्तःकरण ने इस पुस्तक का हिन्दी रूपांतर सरल आम बोल-चाल की भाषा में करने के लिये प्रेरित किया जिससे कि जन साधारण समाज जो अंग्रेजी ज्ञान से वंचित रहा है इस पुस्तक को पढ़कर लाभांवित हो सके । विश्व भर में अनेक ध्यान विधियां हैं । इनमें से एक विपश्यना ध्यान विधि है जिसे भगवान गौतम बुद्ध ने 2600 वर्ष पूर्व इस विशेष विधि पद्धति का आविष्कार किया था । विपश्यना का अर्थ अन्तर्दृष्टि, पश्यना का अर्थ- देखना अर्थात खुली आँखों से साधारण किस्म को देखना । भारतवर्ष में पिछले सैंकड़ों वर्षों से यह विधि लुप्त हो चुकी थी । विपश्यना गुरु परम पूजनीय आचार्य स्व. सत्य नारायण गोयन्का जी ने सन् 1957 में बर्मा से शिक्षा ग्रहण करके भारत आकर इसका प्रचार-प्रसार किया । आज भारत ही नहीं विश्व भर में अनेेक विपश्यना ध्यान केन्द्र निःशुल्क उनके मार्गदर्शन में सुचारु रूप से निर्विवाद संचालित हो रहे हैं । विपश्यना ध्यान विधि तीन प्रकार से की जाने वाली पद्धति है- पहली विधि हैः भगवान गौतम बुद्ध ने कहा है कि अपने कृत्यों, अपने शरीर, अपने मन, अपने हृदय के प्रति सजग रहना अर्थात चल रहे हो तो बस होश के साथ चलो, हाथ हिला रहे हो तो बस होश के साथ हिलाओ, खाना खा रहे हो तो बस होश के साथ खाना खाओ, पढ़ रहे हो तो होश के साथ पढ़ो । चलना, हाथ-पैर हिलाना, खाना खाना, पढ़ना-लिखना आदि सभी को सजग होकर करना है । अपने शरीर के प्रति सजग रहना है । नहाते समय जो पानी शरीर पर गिर रहा है उसे महसूस करें कि क्या उससे अपूर्व आनन्द व उसकी शीतलता या गर्माहट अनुभव हो रही है । प्रत्येक को उन सबके प्रति सजग रहना है, जाग्रत रहना है, होश में रहना है । इसी प्रकार मन के विषय में है जो मन के पर्दे पर विचार आ रहे हैं, वे जा रहे हैं । उस समय हमें दृष्टा बनकर सजग, जाग्रत व होश में रहना है । हृदय के पर्दे पर जो भाव गुजरे उसके बस साक्षी बने रहना है, उलझना नहीं है । मूल्यांकन नहीं करना है । अच्छा या बुरा बस उसे अपने ध्यान का अंग बनाकर रखना है, विद्वेष, वैर-भाव नहीं करना है, खिन्न नहीं होना है । दूसरी विधि- श्वाँस की है । अपने श्वाँस के प्रति सजग, जागरुक रहना है जैसे श्वाँस भीतर जा रही है तो पेट ऊपर उठ रहा है । जब श्वाँस बाहर आ रही है तो पेट नीचे बैठते हुये सा प्रतीत हो रहा है । पेट के ऊपर उठने और नीचे बैठने के प्रति सजग रहना है । पेट के उठने और बैठने का बोध होते रहना चाहिये । इस प्रकार पेट के प्रति जागरुक होने से मन शान्त हो जाता है, हृदय शान्त हो जाता है, भाव दशायें समाप्त हो जाती हैं । जैसे आकाश में विभन्न प्रकार की आंधियाँ बहती रहती है, पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण, धूल भरी या धूल रहित, ठण्डी या गर्म, बहुत तेज आंधी या शीतल मंद समीर बहुत सी आंधियाँ चलती हैं । इसी तरीके से शरीर में संवेदनायें उत्पन्न होती रहती हंै- प्रिय, अप्रिय या तटस्थ । जब साधक पूर्ण रूप से उनको समझ लेता है तब वह सभी अपवित्रताओं से अपने जीवन काल में मुक्त हो जाता है। तीसरी विधि- जब श्वाँस नासा पुटो से भीतर जाने लगे उसके प्रति सजग हो जाना है । नासा पुटो पर श्वाँस के स्पर्श का अनुभव करना है । जब श्वाँस अन्दर जायेगी उसकी शीतलता का अनुभव करना है । जब श्वाँस बाहर आयेगी उसकी गर्माहट का नासा पुटो पर अनुभव करना है । आप विपश्यना ध्यान के लिये कुछ समय के लिये शान्तचित्त सहजावस्था में सुखपूर्वक एकान्त स्थान पर जहाँ किसी प्रकार का शोर गुल या बाधा न पहुंचाने वाला हो, आँखें बंद करके सुखासन में बैठ जाओ ।
BOOK DETAILS
Publisher | Uttkarsh Prakashan |
ISBN-10 | 93-84236-91-8 |
Number of Pages | 160 |
Publication Year | 2015 |
Language | Hindi |
ISBN-13 | 978-93-84236-91-5 |
Binding | Paperback |
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