Author : Mukesh Dubey
Publisher : Uttkarsh Prakashan
Length : 96Page
Language : Hindi
List Price: Rs. 100
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अन्नदाता शायद पाँच बरस का था जब वो कविता पढ़ी थी। है अपना हिन्दुस्तान कहाँ? वो बसा हमारे गाँवों में...... लेकिन तब उसका अर्थ नहीं समझ सका था। न तो उम्र ऐसी थी न ही किसी ने कोशिश की यह बताने की कि अगर असली हिन्दुस्तान गाँवों में है तो यहाँ इन कस्बों और शहरों में क्या है ? हर साल स्कूल की छुट्टी हुई कि मौज-मस्ती की तैयारी। ताऊ व चाचा के हमउम्र भाई बहनों पप्पू भैया, बेबी बहनजी, सुधा दीदी, बड़ी जिज्जी, अंजू दी, संध्या दी, भैया, नीलम और सुषमा के साथ बुआ के घर जाना। फूफाजी बहुत बड़े जमींदार थे। सफेद धोती कुर्ते में सिर पर साफा बाँधे फूफाजी को देखकर बड़ा अजीब लगता था। बुआ का घर भी अजीब सा ही था। बाहर एक बरामदा जिसमें लकड़ी का तखत रखा था। शाम को फूफाजी वहाँ बैठते और सारे गाँव के लोग इकट्ठे हो जाते थे। अन्दर कबेलू की छाया वाले कमरे और बड़ा सा आँगन, जिसमें चारपाइयाँ डली होती थीं। मिट्टी की बड़ी-बड़ी कोठियाँ जिनमें अनाज भरा रहता था। सामने रसोईघर जिसमें चूल्हे पर खाना बनता था। सुबह नाश्ते में सबको सत्तू मिलता था। आँगन के उस छोर पर एक हेंडपंप जिससे पानी निकाल कर वहीं रखे पत्थर पर बैठ कर नहा लो। मगर जब तक हम लोग जाते थे वो पानी देना बंद कर चुका होता था। सुबह होते ही पानी लेने के लिये बैलगाड़ी में एक बड़ी सी टंकी लेकर बुआ के घर पर काम करने वाले मिश्री भैया खेत के लिये निकलते। हमारी सारी चैकड़ी भी गाड़ी पर टँग जाती। रास्ते के गढ्ढों पर उछलती कूदती बैलगाड़ी के साथ गिरते सम्हलते हम पहुँच जाते खेत पर। मिश्री भैया पंप चलाकर कुँए से पानी निकालकर टंकी भरते और हम दौड़ पड़ते आम के पेड़ की तरफ। उसकी नीचे लटकी डाल से ऊपर चढ़कर अधपके आम खाने का मजा ही कुछ और था। फूफा जी के तो आम के पेड़ों के भी नाम थे। रस्ते वाला, कालिया और खटुआ........
BOOK DETAILS
Publisher | Uttkarsh Prakashan |
ISBN-10 | 9-38-423689-6 |
Number of Pages | 96 |
Publication Year | 2015 |
Language | Hindi |
ISBN-13 | 978-9-38-423689-2 |
Binding | Paperback |
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