Author : Dr. Rashul Ahmed 'sagar'
Publisher : Uttkarsh Prakashan
Length : 96Page
Language : Hindi
List Price: Rs. 100
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कविता चाहे वह कविता के किसी भी रूप गीत, ग़ज़ल, दोहा या मुक्तक में हो, सही अर्थों में मानवता की पहरेदारी ही है। कोई भी रचना जब रचनाधर्मिता से जुड़ी नहीं होती तब तक वह रचना कहलाने की अधिकारिणी नहीं। कलाकार जब अपनी किसी भी रचना को समाज के सामने लाता है तब उसकी वह रचना अपना कार्य प्रारंभ कर देती है। अब देखना यह होता है वह रचना समाज के बीच कोई रचनात्मक कार्य कर रही है। अथवा कोई विघटन का कार्य । विस्फोट करके हजारों निरपराधों की जान ले लेने वाले बारूदी बम किसी की रचना तो हो सकते हैं किन्तु रचना धर्मिता से दूर रहने के कारण वास्तविक रचना नहीं कहे जा सकते। रचना तो ब्रह्मा के कमण्डल से निकली वह पावन जलधारा है जो प्यासी धरती को सिंचित करती हुई निर्माण की फसल उगाती है। इन सभी दृष्टियों से रसूल अहमद ‘साग़र’ बकाई एक ऐसे शायर और कवि हैं जिनकी शायरी अनेक विरोधाभासों को समन्वय और एकता के मंच पर ले आती है। फिर चाहे यह एकता हिन्दी और उर्दू के भाषा सौन्दर्य की हो अथवा गीत और ग़ज़ल जैसी साहित्यिक विधाओं की, चाहे अनेक राजनैतिक विचारधाराओं में छुपे हुये मानवीय मूल्यों की हो या फिर विभिन्न मजहबों में छुपे उनके सच्चे अर्थों या उद्देश्यों की। ‘साग़र’ साहब सही मायने में मुहब्बत के शायर हैं, मुहब्बत के सभी मतभेदों को दूर कर देने वाले शायर का केवल एक शेर उदाहरण के तौर पर देखें, जिसमें उनका हिन्दी भाषा सौष्ठव और मुहब्बत का पैगाम दोनों ही हैं- करो उत्पन्न दिल में प्रेम, मन आस्था पैदा, लड़ाई से विवादों का भला कब हल निकलता है । जिस ग़ज़ल का यह शेर है उसी में और भी बड़े प्यार क़ाफिये इस्तेमाल हुये हैं। जैसे- कल-कल, मंगल, संदल, उज्ज्वल, गंगाजल आदि। सामान्यतः ऐसे क़ाफिये प्रयोग करने से ग़ज़ल में तगज़्जुल का गुण कुछ कम हो जाने का खतरा बढ़ जाता है किन्तु यदि ग़ज़लकार शब्द प्रयोग की सही समझ रखता है तो उससे ग़ज़ल में और भी निखार आ जाता है। ‘साग़र’ साहब में यह गुण भरपूर मौजूद है। इसी प्रकार किसी एक मज़हब की दीवारों को फांदते हुए एक सच्चे देशभक्त की तरह वे शान के साथ कह उठते हैं- मुसलमाँ हूं मगर अब्दुल हमीद ऐसा मुसलमां हूं मिरा ये कौल पहुंचा दों, वतन के इक-इक घर तक मंदिरों से मस्जिदों तक का सफर कुछ भी न था, बस हमारे ही दिलों में दूरियां रख दी गईं । संक्षेप में मैं यह कहने में प्रसन्नता अनुभव कर रहा हूं कि ‘साग़र’ साहब शायरी के हुनर से वाकिफ़ एक ऐसे सच्चे शायर हैं जो इंसानियत भी हिमायत भी करते हैं और हिफाजत भी। उनकी शायरी में इंसानियत की सच्ची खुशबू है। ईश्वर करें यह सुगन्ध सारी दुनिया में फैले। मैं ‘साग़र’ साहब की शायरी का फैन हूं । -डा0 कुंअर बेचैन, ग़ाजिय़ाबाद (उ0प्र0)
BOOK DETAILS
Publisher | Uttkarsh Prakashan |
ISBN-10 | 9-38-423669-1 |
Number of Pages | 96 |
Publication Year | 2015 |
Language | Hindi |
ISBN-13 | 978-9-38-423669-4 |
Binding | Paperback |
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