Author : Dr. Devi Prasad Kunwar
Publisher : Uttkarsh Prakashan
Length : 80Page
Language : Hindi
List Price: Rs. 150
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प्रयागराज (उ.प्र.) निवासी लेखनी के धनी विद्वान कवि डा. देवी प्रसाद कुँवर की लेखनी जहाँ एक ओर समाज को रौशनी देती दिखलाई देती है वहीं अपने अंतर्मन की व्यथा कथा कहती प्रतीत होती है जो वेदना संवेदना को झकझौरती हुई सीधे मस्तिष्क को सोचने पर विवश करती है ...देखिये कवि के शब्द उन्ही की जुबानी.... कई बार ऐसा हुआ कि बड़ी घटनायें हमें प्रभावित न कर सकी और छोटी-छोटी घटनाओं ने मेरे मन पर गहरा असर छोड़ा, उस घटना ने मुझे कुछ लिखने के लिये विवश कर दिया। एक घनघोर दारूबाज की मृत्यु ने मेरे ऊपर कोई असर न छोड़ा पर समुद्र के किनारे बैठे एक प्रेमी युगल को एक-दूसरे के बाहुपाश में लिपटा देखकार मेरी संवेदनायें गहरी हो गयीं। इस घटना से प्रेरित होकर मैंने कई छोटी-छोटी और एकाध बड़ी कवितायें भी लिखीं। ऐसा क्यों हुआ यह मैं नहीं कह सकता। बचपन से ही मेरा भारतीय परम्परा में विश्वास रहा है। यह साहित्यिक परम्परा ‘सुन्दरम’ के साथ ‘सत्य’ से जुड़ती रही है। ‘सत्य’ को भारतीय परम्परा ने उसी सीमा तक स्वीकार किया है जिस सीमा तक मनुष्य यथार्थ से परिचित होकर अपने विकास के लिये प्रगतिशील हो सके। ‘अमंगल’ में उसका विश्वास कभी नहीं रहा। परिणाम यह हुआ कि जीवन की समस्त विकृति समाप्त या अपने विकृत रूप को आइने में देखकर लज्जित हो गयी। भारतीय दर्शन से मानव जीवन को ऐसा प्रकाश मिला कि रागत्व को मिलाकर अधिक से अधिक उसे प्रकाशवान कर दे। हां विकृति का भी स्थान जरूर है लेकिन हमारी साहित्यिक यात्रा विकृतियों से कभी समाप्त न हुई। भारतीय परम्परा ने मुझे बहुत बल दिया है। मैंने विवाद को कभी जीवन का अन्तिम बिन्दु नहीं माना। यही कारण है कि बार-बार दुख और पीड़ा के गोले में प्रवेश कर इससे साफ-साफ बचकर निकलता चला आया। मैंने निबन्ध लिखे, आलोचनायें लिखीं, रिपोर्ताज लिखे तथा कवितायें भी लिखीं, जिनमें जीवन के विविध चित्रों को खींचकर शब्दों के माध्यम से संग्रहीत करने की कोशिश की। इसलिये मैं खुद-ब-खुद अपने सवाल का उत्तर देता दिखाई देता हूँ कि मैं क्यों लिखता हूँ? अपने साहित्यिक जीवन में मैंने यह अहसास किया कि विनाश में भी मनुष्य को जीवन का विश्वास है। अतः विकास और विनाश में कोई अन्तर नहीं है। जीवन एक शतत यात्रा है और उसका विराम विनाश में नहीं विकास में है। मैं छात्र राजनीति की उपज हूँ। वहां मैंने अपना एक निश्चित मुकाम भी बना लिया था परन्तु हिन्दी के यशस्वी निबन्धकार, कवि, आलोचक एवं कथाकार, अग्रज डाॅ. विश्वनाथ प्रसाद की एक बात ने मुझे सोचने के लिये मजबूर कर दिया और मैं उन्हीं की सलाह से लेखन की ओर मुड़ गया। प्रारम्भिक दौर में हिन्दी काव्य-मंचों पर खूब कवितायें पढ़ीं। एक सफल मंच संचालक और युवा मन के आक्रोश को अभिव्यक्त करने वाले कवि के रूप में अच्छी पहचान भी मिली लेकिन एकबारगी वहां से मन उचट गया और मंचों पर जाना लगभग बन्द कर दिया। अपने समय की हाथो-हाथ बिकने वाली पत्रिका धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, माया, मनोरमा, गंगा यमुना और दैनिकों में हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स, आज, दैनिक जागरण, अमर उजाला, सारिका, अवकाश आदि में खूब प्रकाशित हुआ। लेकिन मेरा पूरा लेखन मात्र पत्र-पत्रिकाओं तक ही सीमित रहा। इधर मित्रों के बार-बार आग्रह पर अपनी रचनाओं के संग्रहों को प्रकाशित करने को सोचा लेकिन इस बीच गम्भीर रूप से बीमार हो गया। जब बीमारी से उबरा तो लगभग पांच-छह महीने के परिश्रम के बाद जो थोड़ी-बहुत रचनायें हाथ लगीं वे आप के समक्ष प्रस्तुत हैं। दरअसल मैं शुरुआत से ही अपने प्रति बहुत लापरवाह रहा। कवितायें किसी कागज के टुकड़े या इधर-उधर कहीं लिखकर छोड़ दी और भूल गया। यही हाल निबन्धों का भी रहा। खैर, ‘जभी से जगो रे भाई तभी से सवेरा।’ अगर स्वस्थ रहा और ईश्वर ने कुछ उम्र मेरे हिस्से में बक्शी तो इसके बाद अपने निबन्धों का संग्रह भी आप तक पहुंचाने की कोशिश करूंगा। जिन लोगों ने मुझे इस संग्रह को आप तक पहुंचाने के लिये प्रेरित किया, उन सभी के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। अन्त में मैं अपनी भाभी माँ श्रीमती विमला देवी, पुत्र डाॅ. सव्यसाची, शाश्वत, डाॅ. सीमान्त प्रियदर्शी का सम्बल न होता तो कृति आप तक पहुँच न पाती। अपनी अर्धागिनी डाॅ. शैल कुमारी के संग-साथ ने मुझे फर्श से अर्स तक पहुंचाया। उन्हें मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि। डाॅ. देवी प्रसाद कुँवर
BOOK DETAILS
Publisher | Uttkarsh Prakashan |
ISBN-10 | 978-81-95194-22-3 |
Number of Pages | 80 |
Publication Year | 2021 |
Language | Hindi |
ISBN-13 | 978-81-95194-22-3 |
Binding | Paperback |
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