Author : Purushartha Singh
Publisher : Uttkarsh Prakashan
Length : 96Page
Language : Hindi
List Price: Rs. 150
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मऊ (उत्तर प्रदेश) निवासी विद्वान कवि लेखक श्री पुरुषार्थ सिंह ने अदभुत अंदाज में तीन सर्गों में विभक्त करते हुए गीता के गीत प्रस्तुत किये हैं जो धर्म के प्रति उनकी आस्था को भी दर्शाते हैं और काव्य के प्रति उनके अथाह प्रेम को भी.....नि:संदेह पैनी लेखनी के धनी कवि की इस कृति को हिंदी साहित्य के काव्य पटल पर अवश्य पसंद किया जायेगा और यह पुस्तक अपना उचित स्थान बनाने में कामयाब होगी..............................कवि के शब्दों को देखिये जिसमें उन्होंने अपने मन की बात लिखी है ....................................................................................................................................... प्रथम सर्ग......अर्जुन गीत (कर्म गीता), द्धितीय सर्ग........राधा गीत (प्रेम गीता), तृतीय सर्ग..... उद्धव गीत (अवधूत गीता).............................................................................................. मुरली की तान...........6 अगस्त 2018 को सावन के दूसरे सोमवार की सांध्य वेला में तमसा तट के महमशान, सर्वेश्वरी मुक्ति धाम पर दत्तचित्त आत्म देवाधिदेव में तल्लीन डूबा हुआ था। अचानक एक अजीब सी बेचैनी मन में छाने लगी। तेज रश्मियों के वलय से आच्छादित, मानस पटल पर सोलहो कलाओं से युक्त नंदनंदन, वासुदेव, योगयोगेश्वर श्रीकृष्ण की आभामय छवि सघन हो उठी। चित्त जितना धुर्जटि की शरणागत होना चाहता था मन पर उतने ही विविध रुपों में नटवर नागर छाने लगे। अज्ञात प्रेरणा से वशीभूत होकर आत्म, आदिदेव से प्रार्थना करने लगा। इतने में ही प्रार्थना और अर्जुन विलाप सर्ग पूर्ण हो गया। एक तेजपूंज आकर मन के भीतर कहीं धंस सा गया। इसके बाद ग्यारह दिन ढेकुलियाघाट धाम से घर तक गुजरे। इस पल में क्या खाया-पिया, कब, कहां, कितना और कैसे जिया, कब सोये-जागे, कुछ याद ही नहीं। 15 अगस्त की शाम को लौकिक चेतना लौटी। ‘‘गीता के गीत’’ महमशान की तपस्या के प्रतिफल रूप में प्राप्त हुई। जीवन के वह ग्यारह दिन मंत्रभारित क्षण हैं। अर्जुन पर त्रिर्यक दृष्टिपात करते मधुसुदन की छवि तो कभी अनंत आकाश तक विस्तारित रूप का निदर्शन। कौंतेय के प्रश्नों की लड़ियों के बीच मुस्काते कान्ह अथवा वेरावल वन वटवृक्ष के नीचे उद्धव को अवधूत गीत सुनाते मुरलीधर के सहज ही दर्शन हो गए। इसी बीच मधुसूदन से हास-परिहास करती राधारानी की छवि के दर्शन भी सहज ही हो गये। कुरुक्षेत्र से आरंभ हुई इस यात्रा को भालका तीर्थ के सघन वेरावल वन में उतरने तक न जाने कितनी बार हँसा-बिहँसा, गाया और रोया भी। जगत के खंड-पिंड से अखिल ब्रह्मांड में व्याप्त रचयिता और उसकी रचना से तदाकार होने का बोध हर बार और गहरा होता गया। कैसे कह दूँ कि यह मेरा है। मैंने सृजित किया है। यह निलकंठ-निलांबरी की अहैतुक कृपा है। मैं स्तब्धित, यंत्रवत निमित्त मात्र बना रहा। भारतीय जीवन दर्शन में श्रीकृष्ण का चरित्र जनमानस को सर्वाधिक आकर्षित करता है। सहज से विशिष्ट और आश्चर्य से आलौकिक होने की सभी दशाओं में मोहन जगत, जनमानस को मोहते हैं। अब तक जीवन में श्रीमद्भगवत नहीं पढ़ा हूँ। इसलिए इसका वेदव्यास जी की गीता से किसी प्रकार की साम्यता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। दंतकथाओं, धारावाहिक, फिल्म और गहन स्वाध्याय से योग योगेश्वर को जितना जान सका, मेरा मन जिन तर्कों को मान सका, मैंने उसी का निरुपण किया है। मेरा मानना है कि श्रीकृष्ण ने जीवन में एक बार महारास और तीन बार गीत गाया है। पहली बार संदीपनी गुरु के आश्रम से लौटते समय अपने सारथी दारुक को अश्व गीत सुनाया था। दूसरी बार कुरुक्षेत्र में मोहाछन्न पार्थ के भ्रम के निवारणार्थ कर्म गीत गाया था। तृतीय और अंतिम बार अपने जीवन के तिरोहण से क्षण भर पूर्व भालका तीर्थ के वेरावल वन में उद्धव को अवधूत गीत सुनाया था। इस पुस्तक में उनके कर्म और अवधूत गीत को ही मैंने अपनी सर्जना के केंद्र में रखा। एक वर्ष तक डायरी के पन्ने पर ही दोनों खंड वैसे ही यथावत पड़े रहे। इसमें कुछ अपूर्णता का बोध होता रहा। अगले सावन में 21 जुलाई 2019 की भोर साढ़े तीन बजे के करीब नींद उचट कर खुल गई। मेरे मन में सुदर्शन, मुरलीधर, कन्हैया ने मुझसे जो कुछ कहा मेरा अंतस शब्द रूप लेकर बह निकला और उस क्षण से लेकर अगले सात दिन में राधा गीत पूर्ण हो गया। अट्ठारह दिन में जो कुछ लिख, बह और जी पाया वही गीता का गीत है। अवधूत गीत का सृजन वर्ष भर पहले हुआ पर पुस्तकीय क्रम के आकार में इसे अंत में रखा गया है। पूर्णावतार, योग-योगेश्वर के जीवन में आठ और अट्ठारह अंक का बहुत महत्व रहा है। माता पिता की आठवीं संतान, अट्ठारह कुल, आठ पटरानी, चैरासी संतान, महाभारत के अट्ठारह दिन सहित अनेक ऐसे प्रसंग हैं जो इस अंक से बहुत ही साम्यता रखते हैं। इस सर्जना की पूर्णता पर पद और सर्गों में यह साम्यता मेरे लिए आश्चर्य से भर देने वाली रही। ठसाठस भरे बोधात्मक विचार प्रवाह के साथ सर्जना स्वतः बहती रही। मेरे पहले गीत संग्रह ‘‘कोई दर्द छू रहा है’’ को पुस्तकीय आकार लेते समय मन में अकुलता लिए उत्साह था पर ‘‘गीता के गीत’’ के साथ गहन शांति है। अपने अवतरण के पूर्व आकाशवाणी से लेकर तिरोहण काल तक जो लीलाओं व रहस्यों की खान हो। जिसने जगत के कण-कण को पवित्रता देते हुए सदा अधर्म का भेदन कर धर्म को नव दृष्टि देकर स्थापित किया हो। जिसके माता, पिता, गुरु, बंधु, सखा, योगी, साधक उसे भगवान मानते रहे हों उस सर्वव्याप्त, सर्वनियंता श्रीकृष्ण के विषय में मैं क्या लिख पाऊंगा। इस पुस्तक के किसी अंश से उनका लौकिक- पारलौकिक ऐश्वर्य अंशतः भी प्रभावित हुआ हो तो उनके ही क्षमा याचना की अरज भी है। वह परम कृपालु हैं, क्षमादान देंगे।..........पुरुषार्थ सिंह
BOOK DETAILS
Publisher | Uttkarsh Prakashan |
ISBN-10 | 978-93-91765-55-2 |
Number of Pages | 96 |
Publication Year | 2022 |
Language | Hindi |
ISBN-13 | 978-93-91765-55-2 |
Binding | Paperback |
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